“जशपुर का ऐतिहासिक दशहरा”, भगवान बालाजी की निकली शोभा यात्रा, नीलकंठ पक्षी के दर्शन के लिए एकत्र हुए हजारों लोग
यहां प्रतिस्पर्धा नहीं माँ की पूजा होती है ऐतिहासिक है जशपुर का दशहरा, रियासत कालीन बैगा, आदिवासियों की परंपरा का मिलाजुला मिलता है रूप
सन्नी नायडू, आकाश सोनी
जशपुर दशहरा यहाँ का दशहरा इसलिए भी खास है क्योंकि यहाँ बड़े शहरों की तरह तामझाम नहीं होता बड़ी शालीनता और पारंपरिक रूप से नवरात्र से लेकर दशहरा का त्योहार मनाया जाता है माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है पर यह प्रतिस्पर्धा से काफी दूर है। यहां की हवाओ में आप अगरबत्ती की खुशबू महसूस कर सकते है हमने अपनी संस्कृति को सहेज कर रखा है. बड़े शहरों की तरह चकाचौंध नहीं है।फिर भी पूरा शहर भक्तिरस से सराबोर रहता है। जशपुर दशहरे की खासियत यह भी है कि यहां रियासत कालीन परम्परा बैगा, आदिवासियों की परंपरा का मिलाजुला रूप है। यहां की संस्कृति और परंपरा को सहेज कर रखा गया है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर परंपरा का निर्वहन एक ही परिवार 27 पीढ़ी से कर रहा है।
ऐसे होती है पूजा की शुरुआत-
जशपुर दशहरा को इसके अनूठे होने की वजह से राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल रही है यहां रियासतकालीन पद्धति और आदिवासी परमपराओं का संगम है पूजा की विधि की जाती है जिसे राज परिवार के पिछले 27 पीढ़ी से मनाया जा रहा है । यह जिले का ऐसा उत्सव है जिसमें साल में एक बार एक स्थान पर हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होकर इस त्योहार को पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। दशहरा महोत्सव की शुरुआत यहां के सबसे पवित्र स्थल माने जाने वाले पक्की डाढ़ी से प्रारंभ होती है जहां मान्यता अनुसार देव स्थल बालाजी मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर पूजा की जाती है।
इसके बाद मां काली को काले रंग के बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। पक्की डाड़ी से पवित्र जल बाजे गाजे के साथ देवी मंदिर मे लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित किया जाता है। इसी के साथ नियमित रूप से 21 पंडितों के साथ में राज परिवार के साथ नगर से आए श्रद्धालु मां दुर्गा की उपासना वैदिक, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं, जिसमें पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं। नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर में होती है, जहां हर दिन अनुष्ठान किया जाता हैं।
वन देवी की पूजा-
षष्ठी के दिन वनदुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए विशेष आमंत्रण दिया जाता है। आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है। जिसमें उन प्रेत आत्माओं को भी आमंत्रण दिया जाता है, जिन्हें सतकर्मां के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में लिया था। षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वन दुर्गा को सप्तमी के दिन लाने भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं। यहां से सप्तमी के दिन वनदुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है।
बालाजी भगवान की शोभायात्रा-
विजय दशमी के दिन यहां विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है। दशहरा के दिन हजारों की संख्या में श्रद्वालू जिले भर से यहां के बालाजी मंदिर में एकत्रित होते हैं और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया जाता है। एक रथ में जहां भगवान होते हैें, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित व राज परिवार के सदस्य होते हैं। शोभा यात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंचती है। रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है।
यहां लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाद व अहिरावण के पुतले होते हैं। पहले हनुमान के द्वारा लंका में आग लगाया जाता है, फिर रामायण के क्रम में रावण का भी अंत होता है। अब यहां आतिशबाजी की परंपरा भी प्रारंभ हो गई है जिसका नजारा आकाश में घंटो देखने को मिलता है। रावण दहन के दिन यहां अपराजिता पूजा का भी विशेष महत्व है, जिसे आचार्य व राजपरिवार के सदस्य करते हैं। आम लोगों की भी इसमें भागीदारी होती है। अपराजिता पूजा के पीछे मान्यता है कि रावण वध के पूर्व भगवान श्री राम ने अपराजिता पूजा की थी।
नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है-
दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है। यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है। माना जाता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे जिले के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वहीं नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है। नीलकंठ को राजपरिवार के सदस्यों द्वारा उड़ाया जाता यहां के दशहरा में एक खास बात देखने को मिलती है, जिसमें हर कार्य उसी परिवार के द्वारा किया जाता है जो पिछले 27 पीढ़ी से इस कार्य को कर रहे हैं। दशहरा में वहीं वादक ढोल, नगाढ़े और शहनाई के साथ शामिल होते हैं जो परंपरागत रूप से इस उत्सव में वादन करते आ रहे हैं। जो बैगा नीलकंठ पकड़ कर लाता है, वह भी 27 पीढ़ियों से इस कार्य में जुड़ा है। बताया जाता है कि नीलकंठ पकड़ने के लिए वह जाल नहीं बिछाता है बल्कि आराधना करता है और स्वयं ही नीलकंठ पक्षी उसके पास आ जाते हैं। इसी प्रकार शस्त्र पकड़ने वाले सैनिक, बलि करने वाले मृरधा सभी पीढ़ी दर पीढ़ी अपने दायित्व निभा रहे है।
दहशरा महोत्सव के हर कर्मकांड मेंं राजपरिवार के सदस्यों का जितना महत्व रहता है, उतना ही महत्व बैगाओं, मिरधाओं और पारंपरिक नगाड़ा बजाने वाले लोगों का भी होता है। उनके बिना जशपुर दशहरा महोत्सव अधूरा है। जिले में नारायणपुर चिटकवाइन क्षेत्र डोम राजा का मुख्यालय हुआ करता था। आज भी डोम राजाओं के वंशज यहां दशहरा महोत्सव में नगाड़ा बजाते हैं। 27 वीं पीढ़ी परंपरा को निभा रही है। महोत्सव में नगाड़ा व अन्य वाद्य यंत्र बजाने से पहले वादक 27 पीढ़ी पुराने नगाड़ा की पारंपरिक रीति से पूजा करते हैं।