रीवा (मध्यप्रदेश):
ग्राम पंचायत बांसा की रहने वाली ललिता विश्वकर्मा आजकल न तो सरकारी योजनाओं का लाभ ले पा रही हैं, और न ही समाज की संवेदनशीलता का। कारण – कागजों में वो ‘मृत’ घोषित कर दी गई हैं। अपने पति धर्मपाल विश्वकर्मा की मौत के बाद, जिन योजनाओं का सहारा बनना था, वहीं सिस्टम की एक गलती ने उन्हें और उनके तीन बच्चों को भूखमरी की कगार पर ला खड़ा किया है।

“मुझे जिंदा मानिए, मैं मरी नहीं हूं”

ललिता की यही पुकार है। पिछले चार महीने से वह लगातार जनपद पंचायत, जिला पंचायत और कलेक्ट्रेट के चक्कर काट रही हैं। हर बार वह अपने जिंदा होने के सबूत लेकर पहुंचती हैं, लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में वह अभी भी मृत ही दर्ज हैं।

इतना ही नहीं, उनकी समग्र आईडी में जहां पहले रीवा जिला था, वहां अब ग्वालियर दर्ज हो चुका है। यानी प्रशासन की गलती दोहरी – पहले उन्हें मरा घोषित किया और फिर जिले से बाहर भेज दिया।

योजनाएं बंद, पेट भूखा – कौन सुने?

पति के जीवित रहते ललिता को लाड़ली बहना योजना और गरीबी रेखा कार्ड के तहत खाद्यान्न मिलता था। लेकिन पति की मौत के बाद योजनाएं बंद हो गईं। जब वह लाभ लेने पहुंचीं, तो पता चला कि अब वह सरकारी सिस्टम में “मृत” हैं।तीन छोटे बच्चों के साथ ललिता अब भी दर-दर भटक रही हैं, लेकिन अब तक उन्हें दोबारा जिंदा मानने की औपचारिकता पूरी नहीं की गई है। राशन नहीं, पेंशन नहीं, और सहारा नहीं – सिस्टम की बेरुखी ने उनके परिवार को अंधेरे में धकेल दिया है।

“अफसर सुनते हैं, पर करते कुछ नहीं”

ललिता ने बताया कि उन्होंने सभी ज़रूरी दस्तावेज सौंप दिए हैं, यहां तक कि मृत्यु प्रमाण-पत्र भी, जो उनके पति का है – उनका नहीं। बावजूद इसके, अब तक कोई सुधार नहीं हुआ। अफसर उनकी बात सुनते जरूर हैं, पर कोई लिखित आदेश नहीं निकलता।

प्रशासन की लापरवाही, सरकार की योजनाओं पर सवाल

ललिता की यह कहानी सिर्फ एक महिला की पीड़ा नहीं है, यह प्रशासन की गंभीर खामी और जिम्मेदारों की लापरवाही का उदाहरण है। जब एक महिला जिंदा होते हुए भी सरकारी सिस्टम में “मृत” है, तो यह सवाल उठता है कि बाकी योजनाएं कितनी विश्वसनीय हैं? ललिता का मामला अब स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बन चुका है। लोग प्रशासन से जवाब मांग रहे हैं – “आखिर कितनी ललिताएं सिस्टम की गलती का शिकार हैं?”

ललिता की आखिरी अपील: “हमें जिंदा मानिए”

ललिता की बस यही गुहार है –“सरकार मुझे जिंदा माने। मेरे तीन छोटे बच्चे हैं, जिनका भविष्य अधर में है। राशन चाहिए, इलाज चाहिए, और जीने का हक चाहिए। क्या यही है ‘सबका साथ, सबका विकास’?”

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