जशपुर का दशहरा इसलिए खास है क्योंकि यहां यह केवल उत्सव नहीं बल्कि आस्था, परंपरा और संस्कृति का संगम है। बड़े शहरों की तरह यहां न तो चकाचौंध होती है और न ही प्रतिस्पर्धा, बल्कि यहां की हवा में अगरबत्ती की खुशबू और भक्ति का रस घुला रहता है। नवरात्र से लेकर विजयदशमी तक यहां का दशहरा शालीनता और गहरी परंपराओं के साथ मनाया जाता है।
जशपुर का दशहरा रियासतकालीन परंपरा और आदिवासी संस्कृति का अनूठा मेल है। यह परंपरा आज भी जीवित है और इसका निर्वहन एक ही परिवार लगातार 27 पीढ़ियों से करता आ रहा है। इसी वजह से जशपुर का दशहरा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बना चुका है।
दशहरा महोत्सव की शुरुआत सबसे पवित्र स्थल माने जाने वाले पक्की डाढ़ी से होती है। यहां देवस्थल बालाजी मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्र लाकर उनकी पूजा की जाती है। इसके बाद मां काली को काले रंग के बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। पक्की डाढ़ी से पवित्र जल बाजे-गाजे के साथ देवी मंदिर लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित किया जाता है। यहीं से नवरात्र की पूजा-विधि प्रारंभ होती है, जिसमें 21 पंडित, राजपरिवार और नगरवासी मिलकर वैदिक, राजसी और तांत्रिक विधियों से मां दुर्गा की उपासना करते हैं। आठ सौ साल पुराने काली मंदिर में प्रतिदिन अनुष्ठान और पूजा होती है।
षष्ठी के दिन वन दुर्गा को विशेष आमंत्रण देने की परंपरा है। इस अवसर पर झांकी निकलती है, जो जुरगुम गांव तक जाती है। यहां उन आत्माओं को भी आमंत्रित किया जाता है जिन्हें मां काली ने अपने अधीन कर लिया था। सप्तमी के दिन वन दुर्गा का प्रतीक स्वरूप बेल का फल लाकर देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है।
विजयदशमी के दिन भगवान बालाजी की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। विशेष लकड़ी के बने रथ पर भगवान विराजते हैं, जबकि दूसरे रथ में पुरोहित और राजपरिवार के सदस्य बैठते हैं। यह शोभायात्रा रणजीता स्टेडियम पहुंचती है, जहां नगर की दुर्गा प्रतिमाओं की झांकियां भी मिलती हैं। यहां लंका का निर्माण कर रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद और अहिरावण के पुतलों का दहन होता है। पहले हनुमान लंका में आग लगाते हैं और फिर रामायण के क्रम के अनुसार रावण वध होता है। इस अवसर पर आतिशबाजी का भव्य नजारा भी देखने को मिलता है। इस दिन अपराजिता पूजा भी विशेष रूप से की जाती है, जिसका महत्व भगवान राम द्वारा रावण वध से पूर्व किए गए पूजन से जुड़ा है।
जशपुर दशहरे की सबसे अनोखी परंपराओं में से एक है नीलकंठ पक्षी को उड़ाना। यह पक्षी बैगा के द्वारा लाकर भगवान के रथ से उड़ाया जाता है। मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व या उत्तर दिशा की ओर उड़ता है तो आने वाला वर्ष शुभ होता है, अन्य दिशा में उड़ने पर प्राकृतिक आपदाओं या कठिनाइयों का संकेत माना जाता है। इस परंपरा का निर्वहन भी एक ही परिवार 27 पीढ़ियों से करता आ रहा है। नीलकंठ को पकड़ने के लिए वे कोई जाल नहीं लगाते बल्कि आराधना करते हैं और पक्षी स्वयं उनके पास आ जाता है।
दशहरा महोत्सव बैगा, मिरधा और पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाने वालों के बिना अधूरा है। नारायणपुर-चिटकवाइन क्षेत्र के डोम राजाओं के वंशज आज भी नगाड़ा बजाने की परंपरा निभा रहे हैं। नगाड़ा बजाने से पहले उसकी पूजा की जाती है। यह परंपरा भी 27 पीढ़ियों से निरंतर चली आ रही है।
जशपुर का दशहरा केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं है, बल्कि यह परंपराओं, संस्कृति और सामूहिक एकता का प्रतीक है। यहां दशहरा के हर कर्मकांड में राजपरिवार, बैगा, मिरधा और वाद्य यंत्र बजाने वाले परिवारों की विशेष भूमिका होती है। यही वजह है कि यह उत्सव आज भी अपनी ऐतिहासिक गरिमा और आध्यात्मिक महत्व के साथ जीवित है और देशभर में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है।

