बिहार की सियासत एक बार फिर करवट ले रही है। विधानसभा चुनाव 2025 का रण अब पूरी तरह गर्म हो चुका है। मुकाबला भले ही दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों — सत्तारूढ़ राजग और विपक्षी महागठबंधन — के बीच है, लेकिन इस बार हालात कुछ अलग हैं। मैदान में कुछ ऐसे नए चेहरे और नए समीकरण हैं, जो सत्ता की कुर्सी का संतुलन बिगाड़ सकते हैं। असल में इस बार के चुनाव की कहानी चार किरदारों के इर्द-गिर्द घूम रही है — असदुद्दीन ओवैसी, प्रशांत किशोर, तेजप्रताप यादव और बिहार का युवा वर्ग। यही चार किरदार तय करेंगे कि इस बार बिहार का ‘सरदार’ कौन बनेगा।
असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम इस बार विपक्षी महागठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। पिछली बार सीमांचल की पांच सीटें जीतकर उन्होंने अपनी मौजूदगी का एहसास करा दिया था। अब ओवैसी सीमांचल तक सीमित नहीं रहे हैं। वह उन सभी इलाकों में सक्रिय हैं, जहां मुस्लिम आबादी प्रभावशाली है। उन्होंने डिप्टी सीएम पद पर मुस्लिम चेहरे की अनुपस्थिति को बड़ा मुद्दा बना दिया है। उनके भाषणों और मुद्दों ने युवा मुसलमानों के बीच असर छोड़ा है। ओवैसी की पार्टी को मिलने वाला हर वोट विपक्षी महागठबंधन के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है।
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वहीं, बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका इस बार भी युवाओं की ही होगी। राज्य के करीब चालीस फीसदी मतदाता युवा हैं, और इनमें 29 साल से कम उम्र के मतदाताओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। पिछले चुनाव में यही वर्ग नाराज हुआ था, और उसी ने महागठबंधन को सत्ता की दहलीज तक पहुंचा दिया था। इस बार भी युवा ही सबसे बड़ा मुद्दा है — रोजगार, पलायन और शिक्षा। राजग ने एक करोड़ रोजगार देने का वादा किया है, तो महागठबंधन ने हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का एलान किया है। सवाल यह है कि युवा किस वादे पर भरोसा करेंगे और किसके साथ जाएंगे, क्योंकि इसी पर चुनाव का फैसला निर्भर करेगा।
इस बीच, प्रशांत किशोर ने अपनी नई पार्टी जनसुराज के जरिए बिहार की राजनीति में नई हलचल मचा दी है। कभी चुनावी रणनीति तय करने वाले प्रशांत अब खुद मैदान में हैं। उनकी सभाओं में बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठ रहे हैं। वे सत्तारूढ़ नेताओं की नाकामियों पर सीधा निशाना साध रहे हैं। खास बात यह है कि शहरी और शिक्षित युवाओं में उनके प्रति एक खास आकर्षण देखा जा रहा है। प्रशांत किशोर की एंट्री ने कई सीटों पर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है, जिससे दोनों गठबंधनों के समीकरण गड़बड़ा सकते हैं।
उधर, लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव ने भी इस चुनाव में अलग मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने अपनी नई पार्टी जनशक्ति जनता दल के साथ मैदान में उतरने का फैसला किया है। तेजप्रताप अब अपने ही भाई तेजस्वी यादव और महागठबंधन के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। वह राजद को भीतर से झटका देने की कोशिश में हैं। उनके बयानों और तेवरों ने लालू परिवार की खटपट को सार्वजनिक कर दिया है। मां राबड़ी देवी उनके साथ हैं, लेकिन परिवार दो खेमों में बंटा नजर आ रहा है। तेजप्रताप की यह बगावत महागठबंधन के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है। दर्दनाक हादसा: कालिका मेल की चपेट में आकर मिर्जापुर में छह यात्रियों की मौत
अब अगर बात दोनों बड़े गठबंधनों की करें तो दोनों की ताकतें और कमजोरियां साफ दिख रही हैं। राजग के पास नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत चेहरा है। महिला वोटरों में इस जोड़ी की पकड़ मजबूत है और ‘सुशासन बनाम जंगलराज’ का नारा अब भी असरदार है। लेकिन राजग के सामने नीतीश कुमार के स्वास्थ्य, लम्बे कार्यकाल से उपजी नाराजगी और युवाओं की बेरोजगारी जैसे मुद्दे गंभीर चुनौती बने हुए हैं।
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दूसरी ओर, महागठबंधन में तेजस्वी यादव एकजुटता का चेहरा हैं। एमवाई समीकरण अब भी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। नीतीश सरकार से असंतोष और युवाओं का समर्थन भी उनके पक्ष में दिखता है। लेकिन परिवार में बढ़ती खटपट, ओवैसी और पीके जैसे नए खिलाड़ियों की एंट्री और कई सीटों पर ‘फ्रेंडली फाइट’ जैसी स्थितियां उनकी राह में रोड़े डाल सकती हैं।
बिहार की यह जंग इस बार बेहद दिलचस्प है। राजग और महागठबंधन दोनों का गणित मजबूत है, लेकिन असली फैसला इन चार किरदारों पर टिका है — ओवैसी की आवाज़, पीके की नई राजनीति, तेजप्रताप की बगावत और युवाओं का मूड। जो इन चारों की नब्ज समझ लेगा, वही पटना की कुर्सी तक पहुंचेगा।
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