रायपुर,
छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का अंत अब समीप दिखाई दे रहा है। वह भी किसी राजनीतिक बयानबाजी के सहारे नहीं, बल्कि उन शहीद जवानों और पुलिस अधिकारियों के अदम्य साहस व बलिदान के बूते, जिन्होंने प्रदेश को हिंसा से मुक्त करवाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।
राज्य में पिछले 25 वर्षों में 1417 सुरक्षा बलों ने शहादत दी। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की उस जमीनी हकीकत का गवाह है, जो हिंसा, डर और विद्रोह से होते हुए अब शांति और विकास की ओर बढ़ रही है।
छत्तीसगढ़ में नक्सली उथल-पुथल का इतिहास
छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियों का इतिहास करीब 6 दशक पुराना है। किंतु वर्ष 2000 में राज्य गठन के बाद इस समस्या ने गहरी जड़ें जमाईं। बीते 25 वर्षों का कालखंड इस संघर्ष की सबसे जटिल और निर्णायक अवधि रही है।
2001 से 2025 तक की अवधि में सुरक्षा बलों के 1417 जवान शहीद हुए। इनमें सीआरपीएफ के सबसे अधिक 457, जबकि राज्य पुलिस, डीएफ, सीएएफ, एसटीएफ सहित कुल 856 जवान शामिल हैं। इसके अलावा बीएसएफ, आईटीबीपी, सीआईएसएफ, एसएसबी जैसे बलों के भी सैकड़ों जवानों ने प्राण गंवाए।
जब वर्दीधारी अधिकारी भी शहीद हुए
नक्सली हमले केवल जवानों तक सीमित नहीं रहे। पुलिस के कई वरिष्ठ अधिकारी भी बलिदानियों की सूची में शामिल हैं। कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं —
एसपी वीके चौबे (2009)
एपीसी जयराम लकड़ा (2002)
एपीसी रमेश कुमार (2003)
उप सेनानी दिवाकर महापात्र (2008)
सहायक सेनानी विजय नंद, विकास चंद्रा (2007)
सहायक सेनानी मनोरंजन कुमार सिंह, राकेश कुमार (2009)
निरीक्षक एसआर नायर (2010)
एएसपी राजेश पवार (2011)
इन अधिकारियों की शहादत इस बात की मिसाल है कि नक्सल उन्मूलन की जंग में केवल सिपाही नहीं, नेतृत्वकर्ता भी मोर्चे पर डटे रहे।
वर्ष 2007: जब मौत सबसे ज्यादा बरसी
वर्ष 2007 नक्सल उग्रवाद के इतिहास में सबसे भयावह वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष 200 जवानों ने बलिदान दिया, जो कि अब तक किसी एक वर्ष में सबसे ज्यादा है।
इसके बाद वर्ष 2010 में 177 सुरक्षा बलों की जान गई। लेकिन फिर धीरे-धीरे हालात में परिवर्तन हुआ।
2011 में 87 शहीद, और तब से लेकर 2025 तक किसी भी वर्ष में शहीदों की संख्या 100 के पार नहीं गई। यह राज्य पुलिस, खुफिया तंत्र और आधुनिक रणनीतियों की जीत कही जा सकती है।
हर बलिदान के पीछे एक इतिहास
शहीदों की यह गाथा केवल आंकड़ों की कहानी नहीं, यह हर परिवार की आंखों में ठहरे आंसुओं, हर वर्दी पर टपके खून और हर बंदूक की नोक पर लिखे संकल्प की दास्तान है। यह बलिदान दिखाता है कि छत्तीसगढ़ ने नक्सलियों के आतंक से बाहर आने के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
अब उम्मीद की रोशनी
आज जब छत्तीसगढ़ नक्सली आतंक के अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है, तब इन 1417 शहीदों की कुर्बानी को भुलाया नहीं जा सकता।
राज्य में शांति, सुरक्षा और विकास का नया दौर आरंभ हो चुका है। सड़कें बन रही हैं, स्कूल खुल रहे हैं, अस्पताल पहुंच रहे हैं — और सबसे अहम बात, अब गांवों में डर नहीं, भरोसे की हवा बह रही है।
नक्सलवाद की हार, शहीदों की जीत
यह कहानी केवल नक्सलवाद के अंत की नहीं, बल्कि उस जज्बे की भी है, जिसने अंधेरे में उजाले की लौ जलाई। अब जब हम पीठ पीछे मुड़कर इन 25 वर्षों को देखते हैं, तो साफ नजर आता है —
यह कोई साधारण संघर्ष नहीं, एक युग की लड़ाई थी। और इस युग की जीत उन्हीं जवानों की है, जिनका नाम आज भी पुलिस स्मारकों पर दर्ज है।