नई दिल्ली, 7 नवंबर 2025।
भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में आयोजित ऐतिहासिक समारोह में वर्षभर चलने वाले राष्ट्रीय स्मरणोत्सव का शुभारंभ करेंगे। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी स्मारक डाक टिकट और स्मारक सिक्का भी जारी करेंगे।
यह आयोजन आज सुबह लगभग 9:30 बजे आरंभ होगा, जिसके बाद 9:50 बजे देशभर के लोग एक साथ वंदे मातरम के पूर्ण संस्करण का सामूहिक गायन करेंगे। इस स्मरणोत्सव का उद्देश्य भारत के स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरणा देने वाले इस अमर गीत के महत्व को नई पीढ़ी तक पहुंचाना है।प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि “वंदे मातरम केवल एक गीत नहीं, बल्कि यह भारत माता की आत्मा की अभिव्यक्ति है।” उन्होंने इसे भारत की एकता, राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति का प्रतीक बताया।
यह स्मरणोत्सव 7 नवंबर 2025 से 7 नवंबर 2026 तक वर्षभर चलेगा, जिसमें देशभर के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, सांस्कृतिक संस्थाओं और जनसंगठनों द्वारा विविध आयोजन किए जाएंगे।
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बंकिमचंद्र चटर्जी: ‘वंदे मातरम’ के अमर रचियता
वंदे मातरम की रचना के जनक बंकिमचंद्र चटर्जी (चट्टोपाध्याय) भारतीय साहित्य के ऐसे अमर नाम हैं जिन्होंने शब्दों से राष्ट्रप्रेम की ज्वाला प्रज्ज्वलित की। उनका जन्म 26 जून 1838 को पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में हुआ था।
बंकिमचंद्र बंगला साहित्य के महान उपन्यासकार माने जाते हैं। उन्हें “भारत का एलेक्जेंडर ड्यूमा” कहा गया। उन्होंने 1857 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की उपाधि प्राप्त की और पहले भारतीय बने जिन्होंने वहां से स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद 1869 में कानून की पढ़ाई पूरी कर वे डिप्टी मजिस्ट्रेट बने।
उन्होंने सरकारी नौकरी के साथ-साथ देशभक्ति और समाजजागरण के लिए लेखन जारी रखा। उनका पहला उपन्यास ‘दुर्गेश नंदिनी’ (1865) अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसके बाद ‘कपालकुंडला’, ‘कृष्णकांता का वसीयतनामा’ और ‘आनंदमठ’ जैसी कृतियों ने उन्हें अमर बना दिया। 1891 में वे सेवानिवृत्त हुए और 8 अप्रैल 1894 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
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वंदे मातरम: रचना की कहानी और प्रेरणा
ब्रिटिश शासन के दौर में जब हर समारोह में अंग्रेजी गीत “गॉड सेव द क्वीन” गाना अनिवार्य था, तब भारतीय समाज में असंतोष और आत्मसम्मान की भावना उभर रही थी। इसी भाव से प्रेरित होकर बंकिमचंद्र ने अक्षय नवमी के दिन, 7 नवंबर 1875 को ‘वंदे मातरम’ की रचना की। इस गीत में भारत भूमि को माँ के रूप में पूजते हुए उन्होंने लिखा —“सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम, शस्यश्यामलाम मातरम्…”यह गीत बाद में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में शामिल हुआ, जो भारत की राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बन गया। इस उपन्यास ने स्वतंत्रता आंदोलन की वैचारिक नींव को सशक्त किया।1896 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार वंदे मातरम सार्वजनिक रूप से गाया गया। देखते ही देखते यह गीत स्वतंत्रता सेनानियों और युवाओं के होंठों पर उद्घोष बन गया।देशभर में आज़ादी के लिए संघर्षरत हर भारतीय की जुबान पर एक ही नारा था —“वंदे मातरम!”
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रवींद्रनाथ टैगोर ने दी धुन, स्वतंत्र भारत में मिला राष्ट्रगीत का दर्जा
इतिहासकारों के अनुसार, इस गीत को पहली बार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने स्वरबद्ध किया था। स्वतंत्र भारत की स्थापना के बाद 24 जनवरी 1950 को देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम को भारत का राष्ट्रगीत घोषित किया।
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आज भी धड़कता है वंदे मातरम का जज़्बा
आज, 150 वर्ष बाद भी वंदे मातरम हर भारतीय के दिल में उसी श्रद्धा और ऊर्जा के साथ गूंजता है। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति समर्पण, गर्व और एकता का अमर प्रतीक है।

