बिलासपुर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बिल्हा तहसील कार्यालय के तत्कालीन रीडर-क्लर्क बाबूराम पटेल को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत लगे सभी आरोपों से बरी कर दिया। न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की एकलपीठ ने कहा कि अभियोजन यह साबित करने में विफल रहा कि आरोपित ने रिश्वत की मांग या अवैध लाभ के रूप में धन स्वीकार किया था।

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20 फरवरी 2002 को शिकायतकर्ता मथुरा प्रसाद यादव ने लोकायुक्त पुलिस में शिकायत दी थी कि बाबूराम पटेल ने उसके पिता की जमीन का खाता अलग करने के बदले 5000 रुपए रिश्वत मांगी थी, जो बाद में 2000 रुपए में तय हुई। लोकायुक्त टीम ने ट्रैप कार्रवाई के दौरान उसे 1500 रुपए लेते हुए पकड़ा था। कपड़े और हाथ धोने पर घोल का रंग गुलाबी हो गया था, जिसके आधार पर उसे दोषी ठहराया गया।

30 अक्टूबर 2004 को बिलासपुर के प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (विशेष न्यायाधीश) ने पटेल को एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। आरोपी पटेल ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। बचाव पक्ष के अधिवक्ता विवेक शर्मा ने कहा कि मामला निजी द्वेष के कारण झूठा बनाया गया था। शिकायतकर्ता की पत्नी पूर्व सरपंच थीं और उनके खिलाफ चल रही जांच में आरोपी की भूमिका रही थी। उन्होंने यह भी दलील दी कि जब्त की गई 1500 रुपए की राशि रिश्वत नहीं, बल्कि पट्टा शुल्क के रूप में ग्रामीणों से वसूला गया बकाया था। ट्रैप टीम के सदस्यों ने भी पैसे की बरामदगी के स्थान को लेकर विरोधाभासी बयान दिए। किसी ने दाईं जेब, किसी ने बाईं, तो किसी ने पीछे की जेब बताई।

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हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णय- बी. जयाराज बनाम राज्य आंध्र प्रदेश (2014) और सौंदर्या राजन बनाम राज्य (2023) का हवाला देते हुए कहा कि सिर्फ नोटों की बरामदगी से रिश्वत साबित नहीं होती, जब तक मांग और स्वीकारोक्ति का ठोस प्रमाण न हो। अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता ने खुद माना कि उसे स्पष्ट नहीं था कि वह राशि रिश्वत थी या शुल्क। साथ ही, रिकॉर्ड की गई बातचीत में भी आरोपी की आवाज पहचानने योग्य नहीं थी। हाईकोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष अपना मामला संदेह से परे सिद्ध करने में विफल रहा और ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों का गलत मूल्यांकन किया। इसलिए 30 अक्टूबर 2004 का दोषसिद्धि आदेश रद्द करते हुए बाबूराम पटेल को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।

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