डॉ. राधाकृष्णन की जयंती पर 5 सितम्बर विशेष लेख
जब हम 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं, तो यह दिन केवल डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस की औपचारिकता नहीं, बल्कि शिक्षा और शिक्षक की भूमिका पर आत्मचिंतन का अवसर होना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन एक दार्शनिक, शिक्षक और राष्ट्रपति होने के बावजूद जीवनपर्यंत शिक्षक बने रहने को ही अपना गौरव मानते थे। उनका स्पष्ट मत था कि –
“एक आदर्श शिक्षक केवल सूचना का संवाहक नहीं होता, वह चरित्र का निर्माता होता है।”
आज यह सवाल पहले से भी अधिक प्रासंगिक है कि क्या हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली इस उद्देश्य को पूरा कर रही है?
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क्या केवल पढ़ना-लिखना ही शिक्षा है?
गांधीवादी चिंतक धर्मपाल जी ने एक बार सारनाथ में आयोजित शिक्षा सम्मेलन में बड़ा ही मौलिक प्रश्न उठाया था –
“क्या पढ़ने-लिखने की कला ही शिक्षा है? या फिर शिक्षा कुछ और है?”
धर्मपाल जी के अनुसार, शिक्षा का सही अर्थ है – प्रज्ञा, शील और समाधि का विकास। यानी ज्ञान, नैतिकता और आत्मिक स्थिरता। इसके विपरीत आज की शिक्षा ने तकनीक, सूचनाओं और जीविकोपार्जन को ही अपना लक्ष्य बना लिया है। ऐसे में क्या हम अपने समाज को सचमुच शिक्षित कह सकते हैं?
यदि हम शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान मानें, तो भारत की 60 से 70 प्रतिशत जनसंख्या आज भी “अशिक्षित” मानी जाएगी, जबकि वे जीवन और व्यवहार में कहीं अधिक शिक्षित हो सकते हैं।
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भारतीय ज्ञान परंपरा की जड़ें: विद्या विमुक्तये
भारतीय दर्शन में शिक्षा या ‘विद्या’ का उद्देश्य आत्ममुक्ति है –
“सा विद्या या विमुक्तये”
अर्थात – वह विद्या ही सच्ची है जो हमें बंधनों से मुक्त करे।
उपनिषदों, गीता, और बुद्ध साहित्य में यह बार-बार स्पष्ट होता है कि ज्ञान वह है जो आचरण में उतरे, व्यक्तित्व को परिष्कृत करे, और चेतना को ऊँचा उठाए।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते…”
यानी जैसे अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान सभी अज्ञान और कर्मबंधन को नष्ट करता है।
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‘द द द’ की शिक्षा: दमन, दान और दया
बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित एक प्रसंग इस ज्ञान परंपरा को अत्यंत सरल और गूढ़ रूप में प्रस्तुत करता है। जब देवता, मनुष्य और असुर प्रजापति से उपदेश मांगते हैं, तो उन्हें केवल एक अक्षर ‘द’ कहा जाता है। लेकिन सबका अर्थ अलग-अलग होता है:
- देवताओं के लिए – दमन (इंद्रियों पर नियंत्रण)
- मनुष्यों के लिए – दान (अत्यधिक संग्रह की प्रवृत्ति से बचाव)
- असुरों के लिए – दया (करुणा का विकास)
यह ‘द द द’ की दैवी गर्जना भारतीय शिक्षा की आत्मा है – संवेदनशीलता, संयम और सेवा।
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मैकाले से महर्षि तक: किस दिशा में जा रही है शिक्षा?
मैकाले की औपनिवेशिक शिक्षा नीति का प्रभाव आज भी हमारे शिक्षण तंत्र पर हावी है, जिसका उद्देश्य था ऐसे भारतीय तैयार करना जो “शरीर से हिंदुस्तानी और सोच से अंग्रेज़” हों। यह प्रणाली आज भी नौकरी, परीक्षा, और प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित है, न कि सोच, चेतना और चरित्र निर्माण पर।
महर्षि अरविन्द इस बात को अच्छी तरह समझते थे। उनका मानना था –
“हमें किसी को कुछ सिखाने की जरूरत नहीं। शिक्षक का कार्य केवल यह है कि वह छात्र की अंतर्निहित चेतना और प्रतिभा को जाग्रत करे।”
आज की शिक्षा: सफलता का बोझ या आत्मा का उत्थान?
आज शिक्षा रोजगार, डॉक्टर-इंजीनियर बनने और कोचिंग की दौड़ तक सीमित रह गई है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि कई छात्र अवसाद, हताशा और आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम प्रश्नोत्तर और संवाद की परंपरा को फिर से जीवंत करें – जैसा कि उपनिषदों, मिलिंदपन्हो और गीता में हुआ करता था।
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नवीन और प्राचीन का संतुलन: विद्यानिवास मिश्र का सूत्र
आचार्य विद्यानिवास मिश्र, कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के एक श्लोक को उद्धृत करते हैं:
“पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि सर्वं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते
मूढ़ः परप्रत्ययनेय बुद्धिः।।”
अर्थ: केवल पुराना होने से कुछ अच्छा नहीं हो जाता और नया होने से खराब नहीं होता। बुद्धिमान व्यक्ति परीक्षण करता है, मूर्ख केवल दूसरों के भरोसे चलता है।
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शिक्षक दिवस को केवल उत्सव नहीं, आत्मचिंतन बनाएं
आज जब हम डॉ. राधाकृष्णन की स्मृति में शिक्षक दिवस मना रहे हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने शिक्षक को समाज का प्रेरक, मार्गदर्शक और विचार निर्माता माना था।
- क्या आज शिक्षक अपने छात्रों के मनन, चिंतन और चरित्र निर्माण में सहयोगी हैं?
- क्या शिक्षा केवल अंकों और डिग्रियों तक सीमित रह गई है?
- क्या हमारे विद्यार्थी आत्मा के स्तर पर शिक्षित हो रहे हैं?
शिक्षक दिवस का वास्तविक उद्देश्य तभी पूरा होगा, जब हम शिक्षा को एक आत्मिक यात्रा, एक चेतना विस्तार, और एक संवेदनशील समाज निर्माण का माध्यम मानें।
– समापन में यही प्रार्थना:
“तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।”
(हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर, असत्य से सत्य की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।)
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