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भारत आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। दशकों तक मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी इलाकों को आतंक, भय और हिंसा में डुबोने वाला नक्सलवाद अब अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है। यह बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि यह वर्षों की रणनीति, साहस और समन्वित प्रयासों का परिणाम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा अपनाई गई बहुस्तरीय रणनीति—जिसमें सुरक्षा, विकास और प्रशासनिक सुधारों का संगम है—ने नक्सलवाद की जड़ें खोखली कर दी हैं और देश में स्थायी शांति की राह प्रशस्त की है।
नक्सलवाद, जिसने कभी आदिवासी क्षेत्रों में असुरक्षा, भय और रक्तरंजित संघर्ष का माहौल बनाया, अब धीरे-धीरे अपनी शक्ति खो रहा है। इसका सबसे प्रतीकात्मक उदाहरण है देश के सबसे खतरनाक माओवादी कमांडर, माड़वी हिड़मा का खात्मा।
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हिड़मा: आतंक का प्रतीक और माओवादी रणनीति का मस्तिष्क
हिड़मा का जन्म सुकमा क्षेत्र में हुआ और उसने कम उम्र में ही हथियारबंद हिंसा की दुनिया में कदम रखा। पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की बटालियन-1 का प्रमुख और सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति का सदस्य होने के नाते, हिड़मा न केवल संगठन का सैन्य नेतृत्व करता था, बल्कि बड़े हमलों की योजना और रणनीति का दिमाग भी था।
2010 का दंतेवाड़ा हमला और 2013 का झीरम घाटी नरसंहार—ये केवल कुछ उदाहरण हैं, लेकिन इन वर्षों में हुए लगभग हर बड़े हमले के पीछे हिड़मा का हाथ माना जाता है। उसकी मौजूदगी मात्र से सुरक्षा बलों के लिए खतरा बना रहता था। उस पर इनाम घोषित होने की राशि 50 लाख से लेकर एक करोड़ रुपये तक थी। हिड़मा की छवि ने सुरक्षा बलों में चुनौती और भय दोनों पैदा किया।
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सुरक्षा बलों का साहसपूर्ण अभियान और हिड़मा का अंत
18 नवंबर 2025 को सुरक्षा बलों ने हिड़मा और उसके साथियों के खिलाफ एक अत्यंत सटीक और साहसपूर्ण अभियान चलाया। इस ऑपरेशन में हिड़मा, उसकी पत्नी और छह माओवादी ढेर कर दिए गए। मौके से मिली एके-47, पिस्टल, राइफलें और अन्य आधुनिक हथियार यह प्रमाण हैं कि यह अभियान नक्सलवाद की रीढ़ पर निर्णायक प्रहार था। हिड़मा का अंत केवल प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से माओवादी संगठन को झकझोर देने वाला मोड़ था।
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लाल गलियारा का सिकुड़ना और जनसमर्थन का बदलाव
‘लाल गलियारा’ के नाम से विख्यात नक्सली क्षेत्रों में गतिविधियाँ लगातार सिकुड़ रही हैं। मार्च 2026 तक ‘नक्सलमुक्त भारत’ अभियान के तहत लगभग 300 नक्सली मारे गए, सैकड़ों ने आत्मसमर्पण किया और कई को गिरफ्तार किया गया। हाल ही में छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में दो दिनों में सैकड़ों नक्सलियों का आत्मसमर्पण यह संकेत देता है कि नक्सल संगठन अब अपने पुराने आधार क्षेत्रों में भी जनसमर्थन खो रहा है।
आदिवासी समाज धीरे-धीरे सरकारी विकास योजनाओं की ओर बढ़ रहा है। यह स्पष्ट संकेत है कि हिंसा और आतंक से नहीं, बल्कि विकास और संवेदनशील प्रशासन से ही क्षेत्रीय स्थिरता लाई जा सकती है।
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नक्सलवाद का विस्तार और उसकी जड़ें
स्वतंत्रता के बाद कई आदिवासी क्षेत्रों में विकास की कमी, भूमि अधिकारों का संघर्ष और प्रशासनिक उपेक्षा ने नक्सलवाद को जन्म दिया। सरकारी योजनाओं का लागू न होना, विकास की असमानता और स्थानीय समुदायों का प्रशासन पर अविश्वास नक्सलियों के लिए अवसर बन गया। उन्होंने युवाओं को हथियारबंद आंदोलन में शामिल किया और अपनी शक्ति का विस्तार किया।
समय के साथ यह आंदोलन हिंसा, वसूली और खून-खराबे का अड्डा बन गया। पुलों, स्कूलों और अस्पतालों को निशाना बनाया गया और आदिवासी समुदाय को आतंक का सामना करना पड़ा। नक्सलवाद अब वैचारिक क्रांति से हटकर अपने लिए सत्ता और भय पैदा करने का माध्यम बन गया था।
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सरकार की बहुस्तरीय रणनीति: सुरक्षा और विकास का संगम
मोदी और शाह की सरकार ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए केवल सुरक्षा अभियान तक सीमित नहीं रही। उन्होंने विकास को तेज किया, प्रशासनिक सुधार किए और आदिवासी क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए व्यापक योजनाएँ लागू की।
सड़क निर्माण, बिजली और मोबाइल नेटवर्क की पहुँच, बैंकों की शाखाओं का विस्तार, शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार और आजीविका कार्यक्रमों की मजबूती—इन सभी उपायों ने नक्सलियों के जनाधार को कमजोर किया। आदिवासी समाज ने महसूस किया कि सरकार उनके पास है और उनके विकास और सुरक्षा की गंभीरता समझती है।
सुरक्षा बलों को आधुनिक तकनीक, विशेष प्रशिक्षण और इंटेलिजेंस नेटवर्क से लैस किया गया। दोनों पहल—सुरक्षा और विकास—ने मिलकर नक्सलियों की पकड़ खोखली कर दी और उनके लिए जनाधार बनाए रखना मुश्किल हो गया।
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हिड़मा का अंत और माओवादी कमान में शून्य
हिड़मा का मारा जाना न केवल माओवादी कमान के लिए बड़ा झटका है, बल्कि इसका व्यापक संदेश यह है कि संगठन अब रणनीतिक और सैन्य दोनों दृष्टियों से कमजोर हो गया है। उसकी छवि वर्षों तक सुरक्षा बलों में डर पैदा करती रही, और अब उसके अंत से नक्सली नेटवर्क में शून्य उत्पन्न हुआ है।
सुरक्षा बलों की बढ़ी हुई ताकत, प्रशासनिक समन्वय और विकास की व्यापक पहुँच ने नक्सलवाद को उस स्थिति में ला दिया है, जहां उसका पुनरुत्थान असंभव दिखता है।
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नई सुबह की शुरुआत: विकास और लोकतंत्र की जीत
नक्सलवाद का ढहना केवल सुरक्षा की जीत नहीं है। यह उन हजारों जवानों के बलिदान का सम्मान है, जिन्होंने देश की शांति के लिए प्राण न्योछावर किए। यह उन लाखों परिवारों की जीत है, जिन्होंने दशकों तक आतंक का सामना किया। यह उन आदिवासी क्षेत्रों की नई सुबह है, जो अब विकास, अवसर और सुरक्षा के साथ देश की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं।
आज भारत नक्सलवाद की छाया से मुक्त, सुरक्षित, विकसित और आत्मविश्वासी भविष्य की ओर बढ़ रहा है। यह नई सुबह केवल बंदूकों की नहीं, बल्कि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और लोकतांत्रिक मूल्यों की विजय है।
सड़कों, स्कूलों, बैंकों, स्वास्थ्य केंद्रों और संचार नेटवर्क के विस्तार ने आदिवासी क्षेत्रों में विश्वास पैदा किया है। विकास और प्रशासनिक सुधारों की निरंतरता नक्सलवाद के पुनरुत्थान को असंभव बनाएगी।
भारत ने यह साबित कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी हिंसक विचारधारा से अधिक शक्तिशाली है। जनता की आकांक्षाएँ विकास, सुरक्षा और शांति में हैं, और नक्सलवाद की समाप्ति इसका प्रमाण है। हिड़मा और उसके जैसे कमांडरों का अंत न केवल सुरक्षा में सफलता है, बल्कि यह दशकों की पीड़ा और बलिदान के बाद मिली सामूहिक विजय का प्रतीक है।
आज का भारत एक नई सुबह की ओर बढ़ रहा है—शांत, सुरक्षित, विकसित और आत्मविश्वासी। यह सुबह आने वाली पीढ़ियों के लिए अवसर, आशा और प्रेरणा लेकर आएगी।
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