रायगढ़ लोकसभा में तीन राजघरानों का सियासी प्रतिष्ठा दांव पर ,राज्य गठन के बाद से भाजपा का कब्जा, आदिवासी वोटर्स निर्णायक

admin
Updated At: 06 May 2024 at 12:17 PM
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रायगढ़
छत्तीसगढ़ की रायगढ़ संसदीय सीट अनुसूचित जाति (एसटी) आरक्षित है। भाजपा, कांग्रेस के साथ अन्य पार्टियों को अच्छी तरह से पता है कि यहां सबसे ज्यादा मतदाता आदिवासी हैं, जो निर्णायक होते हैं। इनको साधने में सफल रहे तो जीत पक्की है। यहां ग्रामीण आबादी का प्रतिशत 85.79 है। कुल आबादी में आदिवासियों का हिस्सा 44 प्रतशित है, जबकि अनुसूचित जाति की आबादी 11.70 प्रतिशत है। लोकसभा चुनाव में इस बार भाजपा ने राधेश्याम राठिया को मैदान में उतारा है। 25 वर्षों बाद इस सीट से सारंगढ़ राजपरिवार की चुनावी वापसी हुई है। यहां से गोंड राजवंश की डा. मेनका सिंह कांग्रेस की प्रत्याशी हैं।
दोनों ही प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशी पहली बार चुनाव मैदान में हैं और आदिवासी मतदाताओं को साधने के लिए तपती धूप में जमकर पसीना बहा रहे हैं। भाजपा प्रत्याशी महतारी वंदन योजना और मोदी की गारंटी तो कांग्रेस प्रत्याशी महालक्ष्मी योजना से आदिवासियों को साधने में जुटे हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्र में राठिया वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है।
वहीं, संसदीय क्षेत्र में गोंड और कंवर समाज के लोग भी बड़ी संख्या में हैं। राधेश्याम को यहां राठिया समाज से होने का फायदा मिल सकता है, हांलाकि अघरिया, यादव, साहू और क्रिश्चन समाज भी यहां निर्णायक भूमिका में रहेंगे।आदिवासी वोटर्स की संख्या रायगढ़ के आसपास सारंगढ़, धरमजयगढ़, लैलूंगा और खरसिया में ज्यादा हैं।रायगढ़ संसदीय क्षेत्र में विधानसभा की कुल आठ सीटें हैं। 2023 के विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा और कांग्रेस में कड़ी टक्कर है। आठ में से चार सीटों जशपुर, पत्थलगांव, कुनकुरी और रायगढ़ सीट पर भाजपा का कब्जा है। वहीं, खरसिया, धर्मजयगढ़, सारंगढ़ और लैलुंगा सीट से कांग्रेस के विधायक चुने गए हैं। मुख्यमंत्री साय इसी सीट से चार बार सांसद रहे हैं।
रायगढ़ संसदीय सीट से प्रदेश को मिले दो मुख्यमंत्री
रायगढ़ संसदीय सीट से प्रदेश को दो मुख्यमंत्री मिले हैं। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे अजीत जोगी वर्ष-1998 में इस सीट से सांसद चुने गए थे। हालांकि, इसके बाद 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में जोगी रायगढ़ छोड़ कर शहडोल चले गए थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। वहीं, वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय भी इस सीट से सांसद रह चुके हैं।, वर्ष-1999 से 2014 तक चार बार इस सीट का संसद में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस दौरान वे केंद्र में राज्य मंत्री भी रहे। वर्ष-1999 में अजीत जोगी ने जब इस सीट को छोड़ा तो कांग्रेस ने अपने पूर्व सांसद पुष्पा देवी सिंह को टिकट दिया था। साय उन्हें हरा कर पहली बार सांसद बने थे। वर्ष-2019 में भाजपा ने साय के स्थान पर गोमती साय को टिकट दिया था, जो विजयी हुई थीं।
राज्य गठन के बाद से भाजपा का कब्जा
रायगढ़ सीट पर अब तक 15 बार चुनाव हो चुके हैं। इस सीट से निर्वाचित होने वाले पहले सांसद राजा विजय भूषण राम राज्य परिषद पार्टी से चुनाव जीते थे। वर्ष-1977 में भरतीय लोक दल की टिकट पर नरहरि प्रसाद सुखदेव साय ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद 80 और 84 में कांग्रेस पार्टी को यहां से जीत मिली थी।पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कांग्रेस पार्टी से अब तक के आखरी सांसद रहे हैं। वर्ष-1998 के बाद कांग्रेस इस सीट से नहीं जीती है। इसके बाद से ये सीट भाजपा का गढ़ बन गई है। राज्य बनने के बाद कांग्रेस एक बार भी रायगढ़ नहीं जीत पाई है।
रायगढ़ सीट पर कांग्रेस-भाजपा में सीधी टक्कर है। भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि पिछले चुनाव में जीत का अंतर घट गया था। कांग्रेस इस बात पर मंथन कर रही है कि बीते तीन चुनावों में बढ़ा हुआ अंतर कैसे पाटा जाए। 7 मई को रायगढ़ सीट पर भी चुनाव संपन्न हो जाएंगे। भाजपा ने जहां पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने प्रत्याशी राधेश्याम राठिया के नाम की घोषणा की। वहीं कांग्रेस ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ मेनका देवी सिंह के नाम का ऐलान किया। दोनों पार्टियों का कैम्पेन भी उसी तर्ज पर आगे भी बढ़ा।दोनों पार्टियों की अलग-अलग चिंताएं हैं। कांग्रेस की परेशानी वोट शेयरिंग बढ़ाने की है। मेनका सिंह को प्रत्याशी बनाकर बरमकेला और सारंगढ़ बेल्ट को भले ही संभाल लिया गया हो लेकिन रायगढ़ शहर और जशपुर क्षेत्र के तीनों विस सीटों पर मामला बिगड़ सकता है। लैलूंगा और धरमजयगढ़ में भी विधायक होने के बावजूद कांग्रेस को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। इस बार वोटर भी साइलेंट है। 2019 की तरह इस बार माहौल वाइब्रेंट नहीं है। रायगढ़ सीट पर 2004, 2009, 2014 और 2019 के परिणाम देखने पर कांग्रेस की सबसे बड़ी परेशानी उभरकर सामने आती है। भाजपा प्रत्याशी से हार का अंतर ज्यादा है। वोट शेयरिंग में अंतर करीब पांच प्रश से कम हुआ ही नहीं है। इधर भाजपा भले ही पिछले चार चुनाव परिणाम देखकर खुश हो रही हो लेकिन मुश्किल तो उसको भी है।
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चुनावी बिसात पर भाजपा ने गोटियां तो ठीक से बिठाई हैं। वोटर साइलेंट है, यह भाजपा को ज्यादा परेशान कर रही है। ऐसा तब होता है जब पब्लिक किसी के प्रत्याशी के जीतने की भविष्यवाणी खुद ही कर लेती है। तब चुनाव वोटर के लिए नीरस हो जाता है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में परिणाम भाजपा को परेशान कर रहे हैं। इन पांच सालों में वोट शेयरिंग में बहुत गिरावट आई है। 2014 में विष्णुदेव साय ने कांग्रेस की आरती सिंह से 17.39 प्रश वोट ज्यादा पाए थे। जबकि 2019 में गोमती साय ने यह अंतर कम करके 4.89 प्रश कर दिया। पांच साल में ही वोट शेयरिंग करीब 13 प्रश तक कम हो गया। इस बार थोड़ी सी फिसलन भी हुई तो भाजपा औंधे मुंह गिर सकती है।
2019 का परिणाम दोहराया तो कुछ भी हो सकता है
राजनीति में कुछ भी हो सकता है वाली संभावना सबसे ज्यादा है। आम जनता भी कुछ भी हो सकता वाला डायलॉग दोहराने लगी है। भले ही दोनों पार्टियों के कैम्पेन में जमीन आसमान का अंतर है। कांग्रेस ने खरसिया और सारंगढ़ में मजबूत होने के बावजूद स्टार कैम्पेनर वहीं बुलाए। भाजपा ने कमजोर क्षेत्रों में ज्यादा प्रचार किया। 2019 में गोमती साय को पत्थलगांव, धरमजयगढ़ और खरसिया ने नुकसान पहुंचाया था। भाजपा को इसकी उम्मीद नहीं थी। अगर इस बार सारंगढ़ भी इसमें जुड़ गया तो मामला 50-50 हो जाएगा। चार विस में भाजपा और चार विस में कांग्रेस प्रत्याशी भारी पड़े तो कुछ भी हो सकता है।
रायगढ़ लोकसभा का यह पहला चुनाव ही होगा जब तीन जिलों से बनकर बनने वाली सीट के तीन राजघरानों में बखत की सत्ता दांव पर लग गई है।रियासतों की सत्ता तो अब नहीं रही लेकिन अब भी प्राचीन आभामंडल को भुनाने में राजघरानों के सियासतदां में कोरी कसर भी नहीं रहने देते हैं। रायगढ़ लोकसभा का यह चुनाव सियासी मायनों में एकतरफा दिख जरूर रहा हो लेकिन गैर गुरेज तथ्य यह भी है कि इस एकतरफा समझे जा रहे इलेक्शन में त्रिकोणीय मुकाबला है, वह भी पूर्व की रियासती ‘रुतबे’ का, रायगढ़-जशपुर और सारंगढ़ राजघरानों के दरमियान। रायगढ़ लोकसभा में मुख्य प्रत्याशी दो ही हैं, जिनके मध्य सांसदी को लेकर टक्कर है लेकिन बीजेपी और कांग्रेस के दो प्रत्याशियों के पीछे तीन राजघरानों का सियासी परचम दांव पर लग गया है।पिछले महीने ही राज्यसभा के लिए नॉमिनेट होकर निर्विरोध जीतने वाले रायगढ़ राजघराने के कुंवर देवेंद्र प्रताप सिंह और जशपुर राजघराने के मौजूदा सदस्यों की सियासी जिम्मेदारी बीजेपी प्रत्याशी राधेश्याम राठिया तो वहीं सारंगढ़ पैलेस से खुद ही कांग्रेस प्रत्याशी हैं- डॉ. मेनका देवी सिंह। इस चुनाव में रायगढ़ पैलेस की सियासी भूमिका इसलिए भी स्वमेव ही शामिल गई क्योंकि राजपरिवार से होने के ही कारण जिला पंचायत सदस्य से सीधे देश की पंचायत राज्यसभा के लिए देवेंद्र बाबा अप्रत्याशित रास्ता तय कर सके, अब पार्टी के प्रति तटस्थ समर्पण की जिम्मेदारी तो अकारण ही निभानी होगी न।
लैलूंगा क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य रहे देवेंद्र प्रताप के लिए कम से कम इस विधानसभा से बीजेपी प्रत्याशी के लिए सम्मानजनक लीड निकाल कर लाना चुनौती से कम नहीं होगा इसलिए भी क्योंकि सीटिंग एमएलए विपक्षी कांग्रेस पार्टी से जो हैं। बात जशपुर राजघराने की रही तो पिछले पांच से ज्यादा दशक से बीजेपी के प्रति शाष्टांग समर्पित विजय विहार पैलेस की दिलीप सिंह जूदेव के समय से यहां तूती बोलती रही है। समय के थपेड़ों ने पैलेस से बहुत छीना जरूर है लेकिन बावजूद इसके जशपुर में इस पैलेस की बखत अब भी कायम मानी जाती है। ऐसे में जशपुर से बीजेपी को लीड के लिए यह राजघराना जरूर जोर लगाएगा, और सीएम का गृह जिला भी तो है और संसदीय सीट भी।
रही बात सारंगढ़ के गिरिविलास पैलेस की तो यहां की बुलंद इमारत की सियासी नींव कितनी, अब भी कारगर है यह लोकसभा के परिणाम जरूर तय करेंगे। सारंगढ़ पैलेस से ही कांग्रेस प्रत्याशी होने का लाभ सारंगढ़ विधानसभा से मिलने और नए जिला बनने के साथ सीटिंग एमएलए कांग्रेस की ही होने का चुनावी अवसर सारंगढ़ पैलेस की प्रत्याशी मेनका देवी को कितना मिलता है यह देखने वाली बात होगी। खैर, रायगढ़ लोकसभा चुनाव के परिणाम चाहे जिधर की तरफ झुके, इस संसदीय सीट के तीन जिलों की तीन पूर्व रियासतों में त्रिकोणीय सियासी ‘बखत’, संभावित एकतरफा परिणाम से कहीं ज्यादा रायगढ़ के चुनाव के संदर्भ में वाकई दिलचस्पी का सबब बन सकती है।
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रायगढ़ लोकसभा सीट पर इस बार परिस्थितियां भाजपा के लिए मुफीद दिख रही हैं। पिछली बार तो आठों विस सीटें गंवाने के बावजूद छह महीने बाद ही लोकसभा चुनाव में पासा पलट दिया था। इस बार तो आठ में से बीजेपी के पास चार सीटें हैं, सरकार भी है। भाजपा के लिए चुनौती इस बात की है कि पिछली बार से भी बड़ी जीत कैसे दर्ज की जाए।छग में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव तकरीबन छह महीने के अंतराल में होते हैं। विस चुनाव पहले खत्म होते हैं इसलिए स्वाभाविक है कि लोकसभा चुनाव भी उन्हीं परिणामों के इर्द-गिर्द लड़े जाते हैं। हालांकि रायगढ़ लोकसभा सीट पर वोटर ने बताया है कि उसको विधानसभा चुनाव से कोई फर्क नहीं पड़ता। लोकसभा में मतदान के लिए माइंडसेट ही अलग होता है। अगर विधानसभा चुनावों के हिसाब से लोकसभा में भी वोटिंग होती तो 2019 में कांग्रेस ही जीत जाती। 2018 में रायगढ़ लोकसभा सीट की आठों विस सीटें कांग्रेस के खाते में थीं।
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जशपुर से लेकर सारंगढ़ तक सभी सीटें करीब दो लाख वोटों के अंतर से कांग्रेस ने जीती थी। आठों सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों ने भाजपा पर 1, 97, 759 वोटों से जीत दर्ज की थी। नवंबर 2018 में चुनाव हुए और छह महीने बाद लोकसभा चुनाव हो गए। विस चुनावों की बढ़त को कांग्रेस ने अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की लेकिन जनता के माइंडसेट ने चौंका दिया। आठ कांग्रेस विधायक मिलकर भी अपने प्रत्याशी को नहीं जिता सके और गोमती साय ने लालजीत को 66027 मतों से परास्त कर दिया। केवल खरसिया, धर्मजयगढ़ और पत्थलगांव विस सीट में ही कांग्रेस को बढ़त मिली लेकिन परिणाम को प्रभावित नहीं कर सके। इस बार तो सर्वथा अलग समीकरण है। आठ में से चार पर कांग्रेस तो चार पर भाजपा काबिज है। इस हिसाब से तो भाजपा को पिछली बार से ज्यादा लाभ मिलना चाहिए।
वर्ष 2018 के विस चुनावों में भाजपा धराशाई हो गई थी। रायगढ़ लोकसभा सीट की आठों विस में कांग्रेस ने क्लीन स्वीप किया था। तब सभी सीटों को मिलाकर कांग्रेस ने कुल 1, 97, 759 वोटों से जीत दर्ज की थी। सबसे ज्यादा अंतर पत्थलगांव सीट पर 36686 वोट का रहा। छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों में इन्हीं आठ सीटों पर कांग्रेस 66027 वोट से पीछे हो गई। इतने कम समय में वोटर का मूड नहीं बदला बल्कि दोनों चुनावों के लिए माइंडसेट ही अलग था।
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2023 विधानसभा चुनाव में दोनों ने बांटी सीटें
छग में विधानसभा चुनावों के थोड़े अंतराल के बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में वोटों की तुलना होना स्वाभाविक है। हाल ही में संपन्न हुए विस चुनाव में भाजपा-कांग्रेस ने चार-चार सीटें बांट ली। जशपुर की तीन और रायगढ़ सीट पर मिलाकर भाजपा ने 1, 07, 884 वोट ज्यादा पाए। वहीं बाकी की चारों सीटों पर कांग्रेस ने 65, 164 वोटों की निर्णायक बढ़त ली। लालजीत सिंह राठिया 2018 विस चुनाव में धरमजयगढ़ से 95, 173 वोट लेकर जीते थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में 87, 729 वोट ही मिले।
जितने अंतर से जीते थे, उतनी तो केवल रायगढ़ में बढ़त
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा प्रत्याशी गोमती साय 66027 मतों से विजयी हुई थी। इतना तो इस बार विस चुनाव में रायगढ़ सीट पर ओपी चौधरी की जीत का अंतर हो गया। 2023 में भाजपा के ओपी चौधरी ने कांग्रेस के प्रकाश नायक को 64443 वोटों से हराया है। लोकसभा चुनाव में रायगढ़ सीट पर क्या मतदाता भाजपा प्रत्याशी को इतनी बढ़त दिला सकेंगे? यह चुनौती तो भाजपा के सामने भी है।
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खरसिया ही रहा अपवाद, बाकी सब बह गए
2019 में केवल खरसिया, पत्थलगांव और धर्मजयगढ़ में ही कांग्रेस प्रत्याशी को भाजपा के मुकाबले ज्यादा वोट मिले थे। इसमें भी केवल खरसिया विस क्षेत्र ही ऐसा रहा जिसने विस के मुकाबले भी कांग्रेस को ज्यादा वोट दिए। विस 2018 में उमेश पटेल को 94201 वोट मिले थे और ओपी चौधरी को 77234 वोट। 2019 लोकसभा में खरसिया विस से गोमती साय को 70765 वोट मिले जबकि लालजीत के हिस्से 89496 वोट आए। तब ओपी चौधरी 16967 वोटों से हारे थे। लोकसभा में यही अंतर बढक़र 18731 हो गया। ओपी को जितने वोट मिले थे, उतने भी गोमती साय को नहीं मिले।
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2019 लोकसभा चुनाव में अंतर
विस क्षेत्र अंतर
जशपुर 33, 941
कुनकुरी 29, 364
पत्थलगांव 8591*
लैलूंगा 5052
रायगढ़ 46,659
सारंगढ़ 6325
खरसिया 18,731*
धरमजयगढ़ *27770
पोस्टल *222
कुल अंतर 66, 027
(*पत्थलगांव, खरसिया और धर्मजयगढ़ विस में कांग्रेस आगे रही)
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रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र में सर्वथा अलग-अलग बैकग्राउंड से आने वाले उम्मीदवार मैदान में हैं। भाजपा और कांग्रेस के बीच ही निर्णायक मुकाबला होगा। दोनों के प्रत्याशियों में एक रजवाड़े से है तो दूसरा किसान है। एक एमबीबीएस है तो दूसरा 12 वीं पास है। एक के पास करोड़ों की दौलत है तो दूसरा चंद लाखों का मालिक है। रायगढ़ लोकसभा के लिए 15 प्रत्याशी मैदान में हैं। भाजपा ने छर्राटांगर निवासी राधेश्याम राठिया को आजमाया है तो कांग्रेस ने वरिष्ठ कांग्रेसी सारंगढ़ राजपरिवार से मेनका देवी सिंह को उतारा है। दोनों प्रत्याशियों ने शपथ पत्र में जो जानकारी दी है, उसके मुताबिक दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है।
अलग-अलग बैकग्राउंड से आने वाले प्रत्याशियों की टक्कर भी रोचक होने वाली है। सारंगढ़ राजपरिवार की डॉ. मेनका देवी सिंह और उनके पति डॉ. परिवेश मिश्रा दोनों एमबीबीएस डॉक्टर हैं। इनकी संपत्ति भी बेहिसाब है। मेनका सिंह के पास करीब छह करोड़ की चल संपत्ति है जिसमें नकदी दस लाख रुपए और करीब 20 लाख के शेयर हैं। पूरे परिवार की चल संपत्ति जोड़ें तो तकरीबन 6.60 करोड़ होती है। अकेले मेनका देवी की चल संपत्ति करीब 3 करोड़ की है। इनकी अचल संपत्ति भी करोड़ों में है। अरेरा कॉलोनी भोपाल में घर, सारंगढ़ और धरमजयगढ़ की संपत्ति की कीमत 6.73 करोड़ रुपए आंकी गई है।
दूसरी तरफ भाजपा प्रत्याशी राधेश्याम राठिया हैं। उनकी शिक्षा 12 वीं तक हुई है। चल संपत्ति के नाम पर पांच तोला सोना, एक बोलेरो और डेढ़-दो लाख रुपए हैं। अचल संपत्ति भी केवल गांवों में है। छर्राटांगर, छोटे हल्दी और सराईपाली में करीब 12 एकड़ जमीन कीमत 95 लाख, पुराना मकान मिलाकर करीब एक करोड़ की संपत्ति है। मेनका सिंह पर कोई बैंक कर्ज नहीं है जबकि राधेश्याम राठिया पर 1.24 लाख का केसीसी लोन बकाया है।
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मां-बेटी के पास एक किलो सोना
मेनका सिंह ने शपथ पत्र में बताया है कि उनके पास 800 ग्राम सोने के गहने हैं। जबकि उनकी बेटी कुलिशा मिश्रा के पास 300 ग्राम सोना है। मेनका सिंह के परिवार की वार्षिक आय करीब 20 लाख रुपए है। इधर शपथ पत्र में राठिया ने वार्षिक आय 5.40 लाख बताई है। राठिया और उनकी पत्नी के पास पांच तोला सोना है।



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