फगुआ 2025: : उरांव समुदाय का पवित्र अनुष्ठान, सोनो-रूपो के आतंक से मुक्ति का उत्सव सरहुल और होली से पहले गूंजेगा फगुआ का उल्लास

Faizan Ashraf
Updated At: 13 Mar 2025 at 11:41 AM
झारखंड का आदिवासी समाज अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं और विशिष्ट मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है। इनमें से एक महत्वपूर्ण पर्व है फगुआ, जिसे उरांव समुदाय विशेष रूप से मनाता है। यह पर्व न केवल उल्लास और आस्था का संगम है, बल्कि एक प्राचीन कथा से भी जुड़ा हुआ है, जिसमें बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश समाहित है। इस वर्ष फगुआ 13 मार्च 2025 को पूरे आदिवासी समाज द्वारा पारंपरिक विधियों के साथ मनाया जाएगा।
फगुआ का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
फगुआ पर्व का आयोजन सरहुल और होली से पहले किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन सोनो और रूपो नामक दो गिद्धों के आतंक से मुक्त होने की खुशी में यह पर्व मनाया जाता है। उरांव समुदाय की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, ये दोनों गिद्ध विशाल और दुष्ट प्रवृत्ति के थे, जो इंसानों के हल-जुआठ और छोटे बच्चों को उठा ले जाते थे। इससे समाज में भय और अशांति का माहौल था।
इस विपदा से उबारने के लिए ईश्वर (धर्मेस) एक युवा के रूप में अवतरित होते हैं और अपने तीरों से उन गिद्धों का वध कर देते हैं। इतना ही नहीं, वे सारू पहाड़ पर स्थित विशाल सेमल के वृक्ष को भी काट गिराते हैं, जहां ये गिद्ध रहते थे। यह घटना बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक बन गई और तभी से फगुआ पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई।
फगुआ की पारंपरिक विधियां
1. फगुआ काटना (संवत काटना)
फगुआ पर्व की शुरुआत एक विशिष्ट परंपरा "फगुआ काटने" से होती है। इस अनुष्ठान में –
उरांव समुदाय के लोग नए पत्तों वाली सेमल की डालियां लाते हैं।
इन डालियों को पुआल से बांधकर विधि-विधान से पूजा की जाती है।
पाहन (गांव के पुजारी) मंत्रोच्चार के साथ इसे अग्नि समर्पित कर देते हैं।
यह अग्नि प्रतीकात्मक रूप से बुराई के अंत को दर्शाती है, ठीक वैसे ही जैसे ईश्वर (धर्मेस) ने सोनो-रूपो का अंत किया था।
2. सेंदरा खेलने की परंपरा
फगुआ के अगले दिन समुदाय के लोग जंगल की ओर सेंदरा (शिकार) खेलने निकलते हैं। यह परंपरा जीवनयापन और आत्मनिर्भरता की प्रतीक मानी जाती है। शिकार के दौरान –
जंगल में सामूहिक रूप से जाने की परंपरा निभाई जाती है।
परंपरागत अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता है।
पकड़े गए शिकार का सामूहिक भोज आयोजित किया जाता है।
फगुआ: एक सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश
फगुआ सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि संघर्ष, आस्था और विजय का प्रतीक है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में कितनी भी बड़ी विपत्ति क्यों न आए, ईश्वर (धर्मेस) सदैव सत्य और धर्म की रक्षा करते हैं।
यह पर्व समाज को एकजुट करने का कार्य करता है।
यह प्रकृति और धर्म के प्रति आभार प्रकट करने का अवसर है।
यह सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का माध्यम है।
फगुआ 2025: झारखंड में पारंपरिक उत्सव की तैयारी
इस वर्ष 13 मार्च को झारखंड के विभिन्न जिलों में फगुआ का उल्लास देखने को मिलेगा। विशेष रूप से गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, खूंटी, लातेहार और रांची जैसे जिलों में इसे बड़े उत्साह के साथ मनाया जाएगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में उत्सव की तैयारी जोरों पर है।
पारंपरिक वाद्य यंत्रों (नगाड़ा, मांदर, ढोल) की गूंज सुनाई देगी।
जनजातीय समुदाय के लोग पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य-गान करेंगे।
पूजा-अर्चना के बाद सामूहिक भोज का आयोजन होगा।
फगुआ पर्व आदिवासी समाज की सांस्कृतिक अस्मिता, आस्था और परंपराओं का जीवंत प्रमाण है। यह पर्व न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि बुराई पर अच्छाई की जीत, प्राकृतिक संतुलन और समाज के पुनर्गठन का संदेश भी देता है।
इस वर्ष फगुआ 2025 के आयोजन में भी वही उत्साह और उमंग देखने को मिलेगा, जो इस पर्व को विशेष बनाता है। झारखंड के जनजातीय समुदाय के लिए यह पर्व सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है।
झारखंड की धरती पर एक बार फिर से गूंजेगा फगुआ का उल्लास, जब आदिवासी समाज एकजुट होकर सोनो-रूपो के आतंक से मुक्ति की स्मृति को पुनर्जीवित करेगा।
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