इस वर्ष की भाद्रपद पूर्णिमा एक ऐसा दिन होगा जब आस्था, विज्ञान और परंपरा का अद्भुत संगम देखने को मिलेगा। रविवार, 7 सितंबर की रात आकाश में वर्ष का अंतिम और सबसे लंबा खग्रास चंद्रग्रहण लगेगा। विशेष बात यह है कि इसी दिन से श्राद्ध पक्ष की शुरुआत भी हो रही है, जब संपूर्ण भारतवर्ष में लोग अपने पितरों के प्रति श्रद्धा अर्पित करेंगे।
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जहाँ एक ओर चंद्रग्रहण का रहस्यमयी दृश्य आसमान को रक्तवर्णी कर देगा, वहीं दूसरी ओर घर-घर में श्रद्धा, तर्पण और स्मृति की गूंज सुनाई देगी। इस बार लगने वाला चंद्रग्रहण पूर्ण चंद्रग्रहण से भी अधिक प्रभावी होगा। इसे खग्रास चंद्रग्रहण कहा जाता है क्योंकि इसमें चंद्रमा ही नहीं, बल्कि आकाश के कुछ हिस्से को भी पूरी तरह ढक लिया जाता है। यह एक ऐसा खगोलीय दृश्य होगा जो एक ओर वैज्ञानिक रोमांच पैदा करेगा और दूसरी ओर आध्यात्मिक चेतना को भी जाग्रत करेगा।
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ग्रहण का स्पर्श रात 9 बजकर 57 मिनट पर होगा, मध्यकाल 11 बजकर 49 मिनट पर आएगा और मोक्ष 1 बजकर 27 मिनट पर होगा। सूतक का आरंभ दोपहर 12 बजकर 57 मिनट से माना गया है। इस बीच श्रद्धालुओं के मन में यह भ्रम है कि क्या ग्रहण और सूतक के कारण श्राद्ध कर्म बाधित होंगे।
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काशी के विद्वानों का उत्तर स्पष्ट है — नहीं। श्रीकाशी विद्वत परिषद के संगठन मंत्री और बीएचयू के पूर्व ज्योतिष विभागाध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय स्पष्ट करते हैं कि श्राद्ध कर्म आत्मा की तृप्ति और पितरों की शांति के लिए किए जाते हैं। इसे कोई भी खगोलीय घटना प्रभावित नहीं कर सकती। विभागाध्यक्ष प्रो. सुभाष पांडेय भी इस मत से सहमत हैं। वे कहते हैं कि ग्रहण का सूतक दोपहर बाद लगता है, जबकि श्राद्ध कर्म पूर्वाह्न में ही विधिपूर्वक सम्पन्न हो जाता है। ऐसे में सूतक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, सूतक लगने से पूर्व भोजनादि कर लेना चाहिए क्योंकि ग्रहण काल में बना हुआ भोजन दूषित माना जाता है। हालांकि छोटे बच्चे, वृद्ध और रोगियों के लिए यह निषेध लागू नहीं होता। दूध या घी से बने खाद्य पदार्थों में तुलसी दल या कुश डाल देने से वे शुद्ध माने जाते हैं। यह परंपरा न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि उसमें वैज्ञानिक समझ भी छुपी है।
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ग्रहण के दौरान मंदिरों और पूजास्थलों में विशेष सावधानी बरती जाती है। सूतक लगने से पहले पूजा-अर्चना पूरी कर लेनी चाहिए और देव विग्रहों को स्पर्श नहीं करना चाहिए। मंदिरों के पट बंद कर दिए जाते हैं। जब ग्रहण समाप्त होता है, तब स्नान कर शुद्ध होकर देव विग्रहों को स्नान कराना, वस्त्र और पर्दे बदलना तथा पुनः पूजन और दान-पुण्य करना अनिवार्य माना गया है।
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भारतीय परंपरा में ग्रहण को केवल खगोलीय घटना नहीं माना गया है। यह आत्मनिरीक्षण, ध्यान और आंतरिक शुद्धि का अवसर भी होता है। इसी दिन से पितृपक्ष आरंभ हो रहा है, जो आत्मीयता, स्मृति और कृतज्ञता का पर्व है। लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान और ब्राह्मण भोज का आयोजन करते हैं।
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ऐसा संयोग विरले ही आता है जब चंद्रग्रहण और श्राद्ध की पूर्णिमा एक साथ पड़ती है। यह न केवल आस्था का दिन है, बल्कि यह सोचने का अवसर भी है कि हमारी परंपराएँ किस प्रकार वैज्ञानिकता और अध्यात्म का संतुलन बनाए रखती हैं।
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इस पावन रात्रि में जब चंद्रमा रक्तवर्ण धारण करेगा और धरती पर श्रद्धा की शीतल छाया होगी, तब यह क्षण केवल एक खगोलीय घटना नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभव का क्षण बन जाएगा। चंद्रग्रहण के साए में पितरों का सम्मान एक अद्वितीय सांस्कृतिक क्षण बनकर उभरेगा।
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