शर्मिला टैगोर और सिमरन का बढ़िया साथ,मौसम ए गुल को हंसाने की कोशिश करते मनोज बाजपेयी

admin
Updated At: 03 Mar 2023 at 06:38 PM
‘गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसम ए गुल को भी हंसाना हमारा काम होता...’ फिल्म ‘देवता’ के लिए लिखा गुलजार का ये नगमा एंग्रीयंग मैन वाले सिनेमा के दौर का बेहद खूबसूरत गाना रहा है। ‘गुलमोहर’ नाम से निर्देशक गजेंद्र अहीरे मराठी में एक फिल्म साल 2009 में बना चुके हैं। अब बारी हिंदी ‘गुलमोहर’ की है। चर्चित निर्देशक मीरा नायर के साथ काम कर चुके राहुल चिटेला को इस फिल्म का विचार कहते हैं तब आया, जब मीरा नायर का दिल्ली वाला घर जमींदोज होने को था। रईस परिवारों के बिखरे रिश्तों को समेटने की कोशिश करती उनकी फिल्म ‘गुलमोहर’ का मजमून कुछ कुछ इस फूल जैसा ही। गाढ़ा चटख रंग लेकिन नसीब खिलने के बाद रास्तों पर बिखर जाना। पूजा के फूलों में इसकी गिनती तक नहीं होती। सजावटी फूल के तौर पर ही इसकी परवरिश जो होती है। फिल्म ‘गुलमोहर’ दुनिया को चटख रंगों के साथ दिखने वाले एक सजावटी परिवार की ही कहानी है।फिल्म ‘गुलमोहर’ को दर्शकों तक पहुंचाने का जिम्मा उसी स्टार स्टूडियोज ने संभाल रखा है जिसकी पिछली फिल्म ‘सेल्फी’ ने बॉक्स ऑफिस पर पानी तक नहीं मांगा। अच्छा ही हुआ कि उसने इस ‘गुलमोहर’ को ओटीटी पर खिलाया है। एक संभ्रांत से दिखने वाले बत्रा परिवार की अंदरूनी दिक्कतों को बयां करती इस फिल्म से शर्मिला टैगोर की अरसे बाद कैमरे के सामने वापसी हुई है। वह परिवार की मुखिया हैं। देवर उनको ताने मारता है कि बत्रा परिवार की बहू अपने पोते पोतियों के साथ शराब पिये, ये ठीक नहीं है। बेटा श्रवण कुमार सा आज्ञाकारी है लेकिन अपनी संतानों की पसंद से परेशान भी है। बत्रा परिवार के रिश्ते दरक रहे हैं। तीन पीढ़ियों की एक छत के नीचे से निकली ये कहानी अब अपने अपने घरों को जाना चाहती है। दादी चाहती हैं कि पुश्तैनी घर छोड़ने से पहले होली सब साथ में मना लें। साथ में रहने की ख्वाहिश इस घर में काम करने वालों की भी है। एक खाना बनाने वाली है जिसके हाथ से मंदिर में बैठे भगवान उठाए जाने पर सवाल उठता है। पैकिंग करने वाली कंपनी का सुपरवाइजर इसका पुराना दोस्त निकलता है। इधर घर की साज संभाल करते रहे बंदे को भी इस खाना बनाने वाली से प्यार है। अमीर गरीब की खाई में पनपते प्रेम त्रिकोण में सामाजिक बेचैनियां भी हैं और रिश्तों की दरकती सच्चाइयां भी। बस जो नहीं है वह है इस कहानी को क्लाइमेक्स तक बांध कर रख पाने वाली एक पटकथा।फिल्म ‘गुलमोहर’ की असल कमजोरी इसकी धीमी और बिखरी बिखरी सी पटकथा ही है। कहानी सही है और इसमें मूल कहानी के साथ साथ चलती क्षेपक कथाएं भी दिलचस्पी जगाती हैं लेकिन ये क्षेपक कथाएं मूल कहानी का रस बढ़ाने की बजाय उसका असर उतारती रहती हैं। दिल्ली की पृष्ठभूमि में खिली फिल्म ‘गुलमोहर’ बदलते मौसमों की बानगी है। मौसम सिर्फ गुलमोहर के खिलने का ही नहीं है। मौसम मनोज बाजपेयी जैसे काबिल कलाकार के ‘फैमिली मैन’ में किशोर बच्चों का पिता बनने के बाद अब कामकाजी बच्चों के पिता बनने का भी आ गया है। एक रईस परिवार के वारिस के किरदार में मनोज बाजपेयी खटकें नहीं सो फिल्म के क्लाइमेक्स में उसे भी सही करने की एक कोशिश है और वही फिल्म का असल संदेश भी है। फिल्म ‘गुलमोहर’ देखने की असल वजह भी मनोज बाजपेयी ही रहे लेकिन मनोज को एक बेचैन, उग्र और सिस्टम से लड़ते किरदार में देखने का जो मजा है, वैसा मजा उनको एक फैमिली ड्रामा के बेचैन बाप के रूप में देखने में कम ही आता है।शर्मिला टैगोर उस दौर की महिला के किरदार में हैं जब शायद महिला सशक्तिकरण के बीज भारतीय समाज के रईस परिवारों में पौधे बनने शुरू हो चुके थे। नाम भी बिल्कुल सही रखा है कुसम। कुसुम अपने फैसले खुद लेना जानती है। पोती से शराब मांगने में उसे हिचक नहीं है। दरअसल दादी और पोती वाली ये क्षेपक कथा इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। शर्मिला टैगोर का अपना आभामंडल है। वह परदे पर जब भी आती हैं अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। कुसुम का अपने बेटे अरुण से रिश्ता भी रोचक है। बेटा अपनी मां का हर कहना मानता है। उसके फैसले पर सवाल नहीं करता है। बिल्कुल इनदिनों 50 के आसपास की उम्र वाले लोगों की तरह। ये 50 के आसपास वाली पीढ़ी भी कमाल है। पहले मां-बाप की आज्ञाकारी बनी रही। अब बच्चों की ‘आज्ञाओं’ में ढलने की कोशिश कर रही है। अपनी मर्जी के ये कभी हो ही नहीं पाए।
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