रायपुर।
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किसी संयोग का परिणाम नहीं था, बल्कि यह यहाँ के लोगों की दशकों लंबी आकांक्षाओं, संघर्षों और जनआंदोलनों की परिणति थी। यह कहानी उस भूमि की है, जिसने अपने स्वाभिमान और पहचान के लिए सतत प्रयास किया और अंततः 1 नवंबर 2000 को भारत का 26वां राज्य बनकर उभरी।
छत्तीसगढ़ का इतिहास 19वीं सदी के मध्य से अपनी अलग पहचान बनाता है। 2 नवंबर 1861 को मध्य प्रांत का गठन हुआ, जिसकी राजधानी नागपुर रखी गई। उस समय छत्तीसगढ़ इस प्रांत का एक जिला मात्र था। वर्ष 1862 में जब मध्य प्रांत को पाँच संभागों में विभाजित किया गया, तब छत्तीसगढ़ को एक स्वतंत्र संभाग का दर्जा मिला और रायपुर को उसका मुख्यालय बनाया गया। इसी के साथ रायपुर, बिलासपुर और संबलपुर तीन जिलों की स्थापना हुई।
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बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में ही पृथक छत्तीसगढ़ की सोच आकार लेने लगी थी। वर्ष 1918 में पंडित सुंदरलाल शर्मा ने अपनी पांडुलिपि में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का स्पष्ट चित्र खींचा। इसीलिए उन्हें छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वप्नदृष्टा और संकल्पनाकार कहा जाता है। आगे 1924 में रायपुर जिला परिषद ने पृथक राज्य की माँग का प्रस्ताव पारित किया। 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में भी पंडित सुंदरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने की माँग रखी, जिससे यह विषय राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आया।
आज़ादी से पहले ही इस आंदोलन ने एक मजबूत रूप ले लिया था। 1946 में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने ‘छत्तीसगढ़ शोषण विरोध मंच’ का गठन किया, जो पृथक राज्य निर्माण की दिशा में पहला संगठित प्रयास माना जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी छत्तीसगढ़, मध्य प्रांत और बरार का हिस्सा बना रहा। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के दौरान, 1953 में फजल अली आयोग के समक्ष छत्तीसगढ़ को अलग राज्य के रूप में मान्यता देने की माँग उठी। 1955 में रायपुर के विधायक ठाकुर रामकृष्ण सिंह ने मध्य प्रांत विधानसभा में पृथक छत्तीसगढ़ की माँग रखी। यह इस दिशा में पहला विधायी प्रयास था।
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वर्ष 1956 में डॉ. खूबचंद बघेल के नेतृत्व में राजनांदगांव में ‘छत्तीसगढ़ महासभा’ का गठन किया गया, जिसके महासचिव दशरथ चौबे थे। यह संगठन जनभावनाओं को एकत्रित करने का माध्यम बना। इसी वर्ष मध्यप्रदेश का गठन हुआ और छत्तीसगढ़ को उसमें मिला दिया गया। लेकिन पृथक पहचान की आकांक्षा थमी नहीं। 1967 में डॉ. खूबचंद बघेल ने बैरिस्टर छेदीलाल के सहयोग से राजनांदगांव में ‘छत्तीसगढ़ भ्रातृत्व संघ’ की स्थापना की, जबकि 1976 में मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी ने ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ बनाकर इस आंदोलन को नई दिशा दी।
1980 के दशक में आंदोलन और भी संगठित हुआ। 1983 में शंकर गुहा नियोगी ने ‘छत्तीसगढ़ संग्राम मंच’ का गठन किया, वहीं पवन दीवान ने ‘पृथक छत्तीसगढ़ पार्टी’ की स्थापना की। इन राजनीतिक और सामाजिक प्रयासों ने राज्य निर्माण की माँग को जन-जन तक पहुँचा दिया।
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अंततः यह लम्बा संघर्ष निर्णायक मोड़ पर पहुँचा जब 1 मई 1998 को मध्यप्रदेश विधानसभा में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण का शासकीय संकल्प पारित हुआ। इसके बाद 25 जुलाई 2000 को तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में छत्तीसगढ़ विधेयक प्रस्तुत किया। 31 जुलाई को यह विधेयक लोकसभा में पारित हुआ, जबकि 9 अगस्त 2000 को राज्यसभा ने भी इसे मंजूरी दे दी। 25 अगस्त 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने ‘मध्यप्रदेश पुनर्गठन अधिनियम’ पर अपनी मुहर लगाई। और अंततः 1 नवंबर 2000 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत छत्तीसगढ़ राज्य का औपचारिक गठन हुआ।
इस दिन छत्तीसगढ़ भारत का 26वां राज्य बना और रायपुर को राजधानी घोषित किया गया। यह केवल प्रशासनिक पुनर्गठन नहीं था, बल्कि यह उस जनता की जीत थी जिसने वर्षों तक अपनी भाषा, संस्कृति और अस्मिता के लिए संघर्ष किया था। छत्तीसगढ़ की धरती पर यह दिन गौरव और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया।
आज छत्तीसगढ़ अपनी स्थापना के पच्चीस वर्षों की ओर बढ़ते हुए देश के सबसे उभरते राज्यों में गिना जाता है। परंतु इस प्रगति के पीछे का इतिहास हमें यह याद दिलाता है कि यह राज्य केवल भौगोलिक सीमाओं से नहीं, बल्कि जनसंघर्ष, जनएकता और जनगौरव से बना है।
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